मानव जीवन का मूल उद्देश्य चेतना के विकास की ओर अग्रसर होना होना चाहिए। जब हम अपना ध्यान चेतना पर केंद्रित करते हैं, तो बाहरी आकृतियां और वस्त्रादि हमें प्रभावित नहीं कर पाते। चेतना को देखने पर हमारे अंदर न तो अहंकार रहता है, न ममकार और न ही राग-द्वेष ही उत्पन्न होता है।
वास्तव में, राग-द्वेष की उत्पत्ति का मुख्य कारण बाह्य स्वरूपों से एकीकरण होना है। जब हम अपने आप को देह और देह के संबंधों से जोड़कर देखते हैं, तभी हमारे अंदर राग और द्वेष की भावनाएं पनपती हैं। किसी से मोह होने पर राग और किसी से घृणा होने पर द्वेष उत्पन्न होता है।
लेकिन जब हम चेतना के स्तर पर देखते हैं, तो यह राग-द्वेष का भाव नहीं रहता। चेतना तो शुद्ध और निर्मल है। वह न किसी से जुड़ी है और न ही किसी से अलग। इसलिए चेतना के स्तर पर कोई अहंकार या ममत्व नहीं होता। वहां केवल शांति और सम्पूर्णता का अनुभव होता है।
इसलिए हमें आंतरिक स्तर पर चेतना का विकास करना चाहिए। शरीर और बाहरी संबंधों से ऊपर उठकर हमें अपनी चेतना के विकास की ओर अग्रसर होना चाहिए। यही हमारा परम लक्ष्य होना चाहिए।
जब हम चेतना के विकास पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो दुनिया की बाहरी चकाचौंध हमें प्रभावित नहीं कर पाती। हम शांत और संतुलित रहते हैं। हमारे भीतर एक अनन्त शांति का अनुभव होता है। यही सच्ची खुशी और आनंद है।
इसलिए हमें अपनी चेतना को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। धीरे-धीरे हमें देह और देह के संबंधों से अपने आप को पृथक करना होगा। हमें उन बाह्य वस्तुओं से आसक्त नहीं होना चाहिए, जो क्षणिक और नश्वर हैं। चेतना ही अमर है और सत्य है।
निष्कर्षतः, जीवन में सच्चा सुख और शांति चेतना के विकास से ही प्राप्त होता है। इसलिए हमें अपने भीतर झांककर चेतना को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। यही हमारा परम लक्ष्य और जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।
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