शुक्रवार, 7 जून 2024

एकत्व साधना का सार - निरपेक्षता

एकत्व की साधना का मूल आधार निरपेक्षता है। जहां हम सहयोग संबंधों का अभिमान न करें और न ही उनके अभाव में पीड़ित हों, वहीं हम वास्तविक एकत्व की साधना कर रहे होते हैं।

जब हम किसी से जुड़ते हैं या किसी का सहयोग लेते हैं, तो हमारे अंदर एक प्रकार का अभिमान उत्पन्न हो जाता है। हम उस व्यक्ति या संबंध को अपना मानने लगते हैं। यही अहंकार और मोह की शुरुआत है। इसी वजह से जब वह संबंध टूटता है तो हम पीड़ा का अनुभव करते हैं।

लेकिन एकत्व की साधना में हमें इस मोह और अहंकार से मुक्त होना होता है। हमें समझना होता है कि न कोई हमारा है और न ही हम किसी के हैं। हम सभी एक चेतना के अंश मात्र हैं।

जब हम किसी से जुड़ते हैं तो यह समझना चाहिए कि यह केवल एक अस्थायी संबंध है। न हम उसके हैं और न वह हमारा है। हम दोनों अलग-अलग आत्माएं हैं जो अपने अनुभव ग्रहण करने आई हैं। इसी तरह जब कोई संबंध टूटता है तो उसमें भी हमें पीड़ा का अनुभव नहीं करना चाहिए।हमें इसे प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करना होगा।

एकत्व साधना करने वाला व्यक्ति संबंधों में बंधा नहीं होता। वह उनसे सहज रूप से जुड़ता और टूटता भी रहता है। उसके भीतर न तो किसी के लिए अभिमान होता है और न ही किसी के जाने पर पीड़ा।

यही निरपेक्षता एकत्व साधना की मूल चाल है। जहां हम संबंध रखते हैं लेकिन वे हमें बांधते नहीं। हम जीवन की प्रवाहिकता को समझते हैं और उसके साथ बहते रहते हैं। न हम किसी पर निर्भर रहते हैं, और न ही कोई हम पर निर्भर होता है।

इस भाव से हमारे भीतर एक शांति और आनंद का भाव बना रहता है। हम हर स्थिति को सहज स्वीकार करते हैं क्योंकि हमारे पास अहं नहीं होता। सुख और दुख आते-जाते रहते हैं लेकिन हम इनसे अप्रभावित रहते हैं।

इस प्रकार, एकत्व की साधना के लिए हमें इस निरपेक्ष भाव को विकसित करना होगा। जहां न संबंधों का अभिमान हो और न ही उनके अभाव में पीड़ा। हम प्रवाह के साथ बहते रहें, हर स्थिति को स्वीकार करते हुए। यही एकत्व की असली अनुभूति है।

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